क्रूरता (कहानी)

>> 23 August 2015

पिछले सालों से खेती में उसे कुछ भी नहीं दिख रहा था और कर्ज़ पर क़र्ज़ का बोझ चढ़ता ही चला जा
रहा था. और जो मुट्ठी भर अरमान थे वे सब पानी की तरह बह गए थे. आप समझते हैं कि गाँव के
आदमी के कितने मामूली अरमान होते हैं. और उसे मिलता क्या था कभी रोटी है तो सब्जी नहीं और
सब्जी है तो रोटी नहीं. तो उसने इस बरस सोच लिया था कि अब शहर जाना है. जहाँ कोई काम ढूँढ कर वो अपने परिवार का गुजारा कर लेगा. और वह अपनी पत्नी के साथ शहर चला आया था.

देश में जहाँ देखो वहां विकास की बातें हो रही थीं. समाचार चैनल, पत्र-पत्रिकाएं, टीवी की बहसें सभी
जगह विकास होता ही चला जा रहा था. मुट्ठी भर लोग बाकी के बचे लोगों की खातिर किसी भी क़ीमत पर विकास लाना चाहते थे. और काफी हद तक वे इसमें कामयाब होते जा रहे थे. देश के विकास के लिए बाहर कम्पनियाँ खोलने की अनुमति ली जा रही थीं, बैंकों को आदेश थे कि विकास की खातिर उन
चन्द मुट्ठी भर लोगों को कम से कम ब्याज़ पर ऋण दिया जाय और यदि पुराना बकाया कोई है तो
उसे माफ़ कर दिया जाय. हर संभव कोशिशें की जा रही थीं कि देश को उसके पिछड़ेपन से आज़ादी मिल सके.

आप जानते हैं कि दोपहरें जब शाम बनकर बीत जाती हैं, तब रात के अँधेरे में बनाये जाते हैं उस
विकास के रोड मैप और वे उँगलियों पर गिने जा सकने वाले लोग हमारे देश में नियमों को तोड़ते हैं,
मरोड़ते हैं और सुबह के उजाले में की जाती हैं उन पर बहसें और वे तब तक चलती हैं, जब तक झूठ को सच और सच को झूठ होता हुआ महसूस न करा दिया जाए. टीवी आपको दिन भर परोसता रहता है
पहले से तय की गयी योजनाएं. अख़बार के मुख्य पृष्ठ भर दिए जाते हैं उन विकास के रोड मैपों से.
बाकी के बचे हुए लोग देखते हैं, सुनते हैं और फिर किसी एक दिन वही सच लगने लगता है जो बीते
दिनों से आपको परोसा जाता रहा था.

वह पत्नी के साथ शहर चला तो आया था लेकिन उसे खुद नहीं पता था कि आखिर उसे करना क्या है जिससे कि वह अपना, अपनी बीवी का और गाँव में रह रहे परिवार का पेट भर सके. शहर के ही एक
बहुत ही पुराने, मैले और सस्ते हिस्से में उसने अपने रहने का अस्थायी बंदोबस्त किया था. और अगर उसे यहाँ टिके रहना था तो उसके लिए उसे जल्द से जल्द कोई काम पकड़ना था. नहीं तो उसे देश में
जल्द से जल्द हो जाने वाला विकास टिके नहीं रहने देगा.

उसने हर नए दिन में कोशिशें कीं और हर बार ही वह थका हारा लौटता. शहर में सब कुछ था. ऊँची ऊँची इमारतें थीं, उनमें ऊँची ऊँची ईएमआई भर कर रहने वाले लोग थे. उन तक पहुँचने के लिए ईएमआई
पर ही ली हुई कारें थीं. जिनमें बैठा हुआ जीवन सड़क पर चलने वाले को विकसित और सुखद लगता था. रेस्त्रां थे, बार थे, उनमें नाचने-गाने वालियां थीं. कुछ मर्ज़ी से तो कुछ बिना मर्ज़ी के उस शहर की दौड़ में बने रहने के लिए उनमें आते-जाते थे. पक्के विकास के प्लान पर बनी कच्ची पक्की सड़कें थीं.
उन पर चलने वाली कुछ सरकारी और बहुत सी गैर सरकारी बसें थीं, गाड़ियाँ थीं. चौराहे पर चमकती लाल पीली हरी बत्तियां थीं. जो लोगों को रोक कर उन्हें सुरक्षित रखना चाहती थीं लेकिन लोग न जाने किस दौड़ में दौड़े जाने के लिए आतुर थे. सड़कों के इधर उधर लगे बड़े-बड़े बैनर थे. नयी-नयी वेल प्लांड कॉलोनियां, जिनमें विला, 2 बैडरूम, 3 बैडरूम फ्लैट के बेतहाशा विज्ञापन थे. उसके नीचे ठेले पर सोता नंगे बदन आदमी था. बगल से बहती कच्ची पक्की नाली थी. आगे चल कर शराब के नशे में सड़क के किनारे पड़ा आदमी था. जगमगाती रौशनी के साथ खुली हुयी अंग्रेजी शराब के ठेके की दुकान थी.
सड़क पर बने हुए जगह-जगह लोकल बस स्टॉप थे. उनमें से ही किसी बस स्टॉप की स्टील की बैंच पर सोता कोई भिखारी था. जो दिन भर भीख माँग कर थका मांदा वहां पड़ा हुआ था और जिसे सुबह उठकर फिर से वही प्रक्रिया दोहरानी होगी. कल सुबह उसे फिर से दयनीय से दयनीय होने की एक्टिंग करनी होगी. कहीं कहीं आयुर्वेदिक जड़ी बूटी का बोर्ड बाहर लगा, तम्बू गाड़े उसमें सोता आठ दस लोगों का
परिवार था.

फिर एक दिन उसकी आशाओं में पंख लगाने वाली उसकी पत्नी ने एक काम खोज निकाला था. उसने घरों में झाड़ू पौंछा का काम खोज लिया था. जो उसे पास में ही रहने वाली सुनीता ने दिलवाया था. वो
खुद भी बीते कई सालों से ये काम कर रही थी. जिन घरों में वो काम करती थी उन्हीं घरों में रहने वाली मालकिनो ने उससे किसी नयी काम वाली के लिए पूँछा था कि उनकी सहेलियों के घरों में काम करने वाली औरत ने काम छोड़ दिया है. और उन्हें नई काम वाली की जरुरत है. तब सुनीता ने उसे उन घरों में लगवा दिया था.

जब 2-3 महीने इसी तरह जैसे तैसे गुजर बसर करके बीत चुके थे तब उसे एक मॉल के बाहर चौकीदारी करने का काम मिल गया. ड्यूटी शाम के 8 बजे से सुबह के 8 बजे तक की थी और तनख़्वाह 4 हज़ार.
उसने उसके लिए बिना सोचे समझे एक पल बिना गवाए हामी भर दी थी. वैसे भी वह पिछले बीते
महीनों से बिलकुल बेरोज़गार था. ऐसा बेरोज़गार जिस पर पहले से भी कभी कोई काम नहीं रहा था.
और उसे शहर में टिके रहना था. आप समझते हैं कि विकसित होते शहर में टिके रहने के लिए आप पर स्वंय को विकासशील बनाये रखने का बोझ बढ़ता ही चला जाता है. आप ऐसी जगह खड़े होते हैं जहाँ से आप पीछे वापस नहीं लौट सकते. आप अपना अतीत छोड़ कर ही वर्तमान की जगह पर खड़े हुए थे और आपको वहां से आगे बढ़ना ही होता है. नहीं तो आप जहाँ खड़े हैं वहां तक पहुँचने के लिए आपको कोई धक्का देकर स्वंय को वहां खड़ा कर लेता है.

जिस मॉल में उसने चौकीदारी की नौकरी पकड़ी थी, उसी से कुछ दूर हटकर एक चाय, बीड़ी, गुटखा,
सिगरेट, पान, कोल्ड ड्रिंक, आलू के परांठे बेचने वाले की ढाबे की शक्ल की दुकान थी. जिसे ना तो आप पूरी तरह ढाबा कह सकते और नाहीं एक पूरी दुकान. उसी ढाबेनुमा दुकान पर मॉल के भीतर काम करने वाले लड़के और कभी-कभी लड़कियां चाय, सिगरेट पीने या परांठा खाने या ज्यादा हुआ तो पानी के
पाउच खरीदने चले आते थे. वही पानी जो मॉल के अंदर बने रेस्टोरेंट के अंदर 25 रुपये का मिलता था, उसी प्यास को वे बाहर आकर एक रुपये में बुझा लेते थे. वहां एक छोटा सा टीवी भी दीवार पर टँगा हुआ था. जिस पर कभी गाने, कभी क्रिकेट, कभी समाचार, कभी आधी अधूरी फिल्में चला करती थीं. और
वहां बैठे लोग अपना जी बहला लिया करते.

उसने भी वहां बैठ अपनी ड्यूटी से पहले का समय काटना शुरू कर दिया था. मॉल के साथ ही कारों,
मोटर साइकिलों की पार्किंग थी और उसे बताना होता था कि गाडी वहां पार्क कर दीजिए. या कभी कभी मॉल के अंदर से या बाहर से मॉल के अंदर माल पहुँचाने वाली गाड़ियाँ आ खड़ी होती थीं.  रात के 12 - 01 बजे तक का समय शहर की जगमगाती रौशनी में कट जाता था. मुश्किल होता था तो उसके बाद का समय. हालांकि वह बीच बीच में सुस्ता लेता था लेकिन फिर भी आप जानते हैं कि रात का एक अपना नशा होता है. गरीब के लिए भी उतना और अमीर के लिए भी उतना. विकसित और अविकसित सभी के लिए रात वही नशा लेकर आती है.

हालांकि उसे रात को जागने के अपने पुराने अनुभव थे जब वो रात को अपने खेतों में पानी लगाया
करता था. उसके गाँव में देर रात से बिजली आया करती थी और तब अलग अलग रातों में अलग अलग खेतों के मालिक अपने खेतों में खड़ी फसलों में पानी लगाया करते थे.


खेतों में लगाया जाने वाला पानी भी क़र्ज़ पर लगाया जाता था और उसको चुकाने के लिए फसल के
बिकने तक की मियाद दी जाती थी. फिर वह क़र्ज़ हर बरस दिन दूना, रात चौगुना बढ़ता चला जाता था और फसलें कभी सूखे में, कभी बाढ़ में, कभी ओले में, कभी बिन मौसम बरसात में बर्बाद हो जाती थीं. फिर उन पर सरकार के दिए जाने वाले सहायता कोष होते थे जो किसानों के नाम पर चन्द मुट्ठी भर लोग खाली कर देते थे. ये वे लोग थे जो चाहते थे कि फसलें बर्बाद हों और तब सहायता कोष बनाये
जाएँ. जिन पर इनका उनसे ज्यादा अधिकार था. किसान या तो मर जाते या क़र्ज़ में दबते चले जाते.

ऐसे ही किसी बीते दिनों की ड्यूटी से पहले के समय में टीवी पर उसने एक नेता के बयान सुने थे जिसमें नेता तमाम टीवी चैनलों को बता रहा था कि सभी किसान खेती के नुकसान से नहीं मरते. ज्यादातर तो अपने इश्क़ के चक्करों, मोहब्बत में नाकाम होने या अपनी पारिवारिक कलह के कारण मरते हैं.
वे अपने बयान ऐसे दे रहे थे जैसे उन्होंने कोई रिसर्च पेपर पढ़ कर सुनाया हो. उनके इस बयान पर
विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने तीखे तेवर अपनाये थे. और अपने रिसर्च पेपर के बारे में बताते हुए कहा था कि उनकी सरकार के समय में किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े इतने बुरे नहीं थे. जिस पर
किसी अन्य विपक्षी पार्टी ने कहा था कि ये चोर चोर मौसेरे भाई हैं. इन्होंने सूखे से मरते किसानों को
पानी नहीं दिया था लेकिन क्रिकेट के मैदान को सींचने के लिए शहर भर के टैंकर ला खड़े किये थे. जिस खेल पर बाद में बदनामी के दाग लग गए. औरवे जो उस सरकार के समय में भी सुरक्षित थे और इस
सरकार के समय में भी सुरक्षित हैं जिन्होंने अवैध रूप से पैसा कमाया.

आज उसे पूरे 26 दिन हो गए थे और वो अपनी ड्यूटी से पहले उसी ढाबेनुमा दुकान में बैठा था. टीवी
चल रही थी. गानों के चैनलों से होती हुई. एम टीवी के आधुनिक शो जिसका प्रायोजक भी उन्हीं चन्द
मुट्ठी भर लोगों में से कोई था. और जिसमें आधुनिक होना सिखाये जाने की हर संभव कोशिश की जा रही थी, से होती हुई. समाचार के चैनल पर आ अटकी थी जिसमें देश के एक नेता अपने श्रीमुख से
किसी मंच पर खड़े हो सामने खड़ी और बैठी भीड़ को बता रहे थे कि गैंग रेप तो ही ही नहीं सकता. यह
प्रैक्टिकली संभव नहीं. और लड़कियां अपने आप किसी एक से सम्बन्ध बनाकर बाकी लड़कों को
बदनाम करती हैं. और कभी ऐसा इक्का दुक्का केस हो भी तो लड़के हैं, गलती हो ही जाती है. उसके
लिए किसी को फाँसी पर थोड़े चढ़ा दोगे. लड़के हैं, गलती हो ही जाती है. लड़कियां ऐसे कपडे पहनती हैं. जीन्स-टॉप पहन कर घूमती हैं, अपनी मर्यादा में नहीं रहतीं. तो ऐसे में लड़के क्या करें.

उसका मन खबर देखकर बेहद उखड गया था. आखिर हम विकसित होकर किस राह पर जा रहे हैं.
हमारी सोच, हमारी समझ कहाँ खड़ी-खड़ी अपना बदन खुजा रही है. वह उठ खड़ा हुआ और अपनी
ड्यूटी के लिए मॉल की ओर बढ़ गया.

रोज़ की तरह ही गाड़ियाँ इकठ्ठा हुई और जब रात गहराने लगी तो एक एक कर वे जाने लगीं. बस
इक्का दुक्का गाड़ी ही खड़ी दिख रही थीं. रात गहराने लगी थी. एक बजे को पार कर रात सुबह की
तलाश में ऊँघने लगी थी. वह भी थोडा सा सुस्ताने लगा था. उसने कुर्सी की टेक लेकर अपने कंधे,
अपना सिर ढीला छोड़ दिया था. तभी कहीं से रोने और चीखने की आवाज़ आयी. उसने यहां वहाँ देखा. उसे कोई नहीं दिखा. वह आवाज़ का रास्ता पकड़ उसकी और बढ़ने लगा. मॉल से ही चिपके दबे छुपे
तहखाने जैसी जगह से रोने और चीखने की आवाज़ें तेज़ हो गयीं. वह दौड़ता भागता उधर की और
पहुँचा. शराब के नशे में धुत्त दो लड़के किसी बच्ची की ज़िन्दगी लेने पर आमादा थे. वो भागा और उसने एक लड़के को पकड़ना चाहा. लड़के ने हाथापाई करते हुए देशी कट्टा निकाल लिया और दहाड़ता हुआ बोला "भाग जा कुत्ते नहीं तो मारा जायेगा". उसने फिर कुछ कोशिश की और इस बार उसने कट्टे से
फायर कर दिया. वह वहां से भागत हुआ दूर हट गया. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. दिमाग बिलकुल सुन्न, शरीर पसीने और डर से भर गया. वह दौड़ता हुआ वहां से मॉल के बाहर आया. वहाँ से आधा
किलोमीटर की दूरी पर बनी पुलिस चौकी की ओर बेतहाशा भागा. और हाँफता हुआ पुलिस चौकी के
कांस्टेबल की कुर्सी पर गिरा. वो हाँफता जा रहा था और बोलने की कोशिश में लगा हुआ था.

-वो...वो लड़की को मार देंगे
-"कौन, क्या हुआ, क्या बके जा रहा है, ठीक से बोल क्या बात है" कुर्सी पर ऊँघता कांस्टेबल बोला
-मॉल....मॉल के पास वो लड़के उस बच्ची को कहीं से उठा लाये हैं...उसे बचा लो
-"अरे सांस ले ठीक से और फिर बता, क्या बात है" ऊँघता और खिसियता कांस्टेबल बोला
-साहब मैंने मॉल के पास में उन दो लड़कों को उस बच्ची का बलात्कार...साहब मैंने उन्हें रोकने की
कोशिश की लेकिन उनके पास हथियार है
-तुम कौन हो?
-साहब में वहां मॉल का चौकीदार, उसे बचा लो



अच्छा, अच्छा रुको, चलते हैं, उसने ऊँघते दरोगा को जगाया और अपनी गाड़ी उठाकर उसके साथ
मॉल की और चल दिए. गाडी रुकी और वे पुलिस वाले उसके बताये स्थान पर पहुँचे, वहाँ कोई नहीं था, हाँ कुछ खून के कतरे यहाँ वहां पड़े थे. पुलिस वाले थोडा सतर्क हुए और आपस में कहने लगे “ढूँढो सालों-कुत्तों को”. आस-पास ढूँढा लेकिन कोई नहीं मिला. उन्होंने गाडी घुमायी और आस पास की सड़कों को तलाशने लगे. थोडी दूरी पर ही सड़क के किनारे के अँधेरे में लहूलुहान अपनी ज़िन्दगी से जूझती वो
बच्ची पड़ी थी. पुलिस वालों ने उसे तुरंत उठाया. चौकीदार को मॉल पर छोड़ वे उस लड़की को ले
अस्पताल को भागे.

वो मॉल के उस गेट पर खड़ा मन ही मन उस बच्ची के बचने की प्रार्थनाएँ करता, उन लड़कों में से एक लड़के के चेहरे को याद करने लगा. जो गाडी वहाँ अब नहीं था उसका नंबर उसके दिमाग में आने लगा. फिर से पुलिस की गाड़ी मॉल के गेट पर आकर रूकती है. पुलिस वाले उसी गाडी में बैठाकर चौकी ले
जाते हैं. उससे पूँछताछ करके थानों में सूचना पहुंचा देते हैं. जो पुलिस की गाड़ियाँ गश्त पर थीं उनकी
रफ़्तार और तेज़ हो जाती है.

पुलिस को कुछ सूत्र पकड़ में आ जाते हैं. और वो रफ़्तार फिर कुछ धीमे पड़ जाती है. सुबह पुलिस मॉल के मालिकों और वहां की अंदर सजी संवरी दुकानों के किरायेदारों से पूछताछ करती है. उसे फिर सुबह
बुलाया जाता है. उसके नाम, पते, गाँव, खेत खलिहान के बारे में पूरी मालुमात की जाती है.

वे असल में आदमी की गहराई पकड़ना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यह आदमी कमज़ोर निकले. कमज़ोर को फिर जिधर चाहे उधर मोड़ा जा सकता है. डराया, धमकाया, समझाया जा सकता है. उसके भले के बारे में उसे एक लंबा लेक्चर पिलाया जा सकता है और जो फिर भी ना माने तो उसे बताया जा सकता है कि अभी उसका विकास नहीं हो पाया है. वो इस विकसित होते जा रहे देश में खामखां रूकावट बन रहा है. क्राइम रेट बढ़ा रहा है. जिसको पुलिस दिन ब दिन रजिस्टर में दर्ज़ ना कर कम करती जा रही है उसमें वह बाधा उत्पन्न कर रहा है. और उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता है.

मॉल वाले उसकी इस बेवकूफी से सकते में आ गए हैं. वे समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या किया जाय.
उन्होंने अगले दिन के अख़बार में बहुत मामूली हिस्से में उस रात की खबर को पढ़ा है. वे उससे बहुत खिन्न हैं. मामूली ही सही लेकिन उनके मॉल का नाम तो ख़राब हुआ और हो रहा है. लोग क्या सोचेंगे. क्या कहेंगे. जिस काम के लिए उस चौकीदार को रखा वो अपना काम ठीक से नहीं कर रहा.
पिछले तीन चार रोज़ से पुलिस दिन रात उससे पूछताछ कर रही है. बच्ची की तबियत में ज्यादा सुधार नहीं है. अस्पताल सरकारी है और वहां किसी को कोई जल्दी नहीं होती. बच्ची के माँ बाप जो कि बहुत गरीब हैं और जो मॉल के आस पास ही सड़क से ज़रा सा दूर बसने वाली उस झोपड़ पट्टी वाली गली के रहने वाले हैं. जहाँ से या तो वे लड़के उसे उठा लाये थे या वो बच्ची रास्ता भूल कर मॉल की ओर आ
गयी थी.

आज 30 वां दिन है और उससे रहा नहीं गया. कुछ है जो उसके अंदर टूटता ही चला जा रहा है. उस टूटन से जो पीड़ा भीतर ही भीतर ज़हर की तरह फैलती चली जा रही है, उससे बच पाना उसे नामुनकिन लग रहा है. वह अस्पताल की ओर चल पड़ता है. वह अस्पताल के बाहर खड़ा हुआ अंदर ही अंदर काँप रहा है. स्वंय को धक्के देते हुए वह जनरल वार्ड के दरवाज़े पर ठिठक गया. वहाँ रोने की, सिसकियों की,
चीखने की, छाती पीटने की आवाज़ें चारों और फैली हुई हैं. पीछे से उसे धकियाते हुए टीवी चैनल के
पत्रकार अंदर घुसे चले जा रहे हैं. कैमरामैन को हिदायत दी जा रही हैं कि बच्ची के माँ बाप का पूरा
क्लोज अप आना चाहिए. उनके रोने, चीखने, चिल्लाने की आवाज़ें ठीक से रिकॉर्ड होनी चाहिए.

वह धड़ाम से गिरता पड़ता दरवाज़े के पास खुद को संभाल पाने में नाकाम साबित होता है. उसके भीतर के आंसुओं का सैलाब उसके भीतर ही जम गया है. उसका सांस लेना दूभर होता जा रहा है. वार्ड में एकाएक भीड़ बढ़ती चली जा रही है. और वह भीड़ से छिटकता हुआ अस्पताल के बाहर कब पहुँच गया उसे पता ही नहीं चला. वो पैदल चलता ही चला जा रहा है. वो दौड़ रहा है. दौड़ते दौड़ते उसकी साँसे फूल गयी हैं. वो पसीने से लथपथ सड़क के किनारे कभी भिखारी से टकराता है, कभी खोमचे वाले से टकराते-
टकराते बचता है. उसका दौड़ना रुक नहीं रहा. सड़क के किनारों पर नए होर्डिंग खड़े कर दिए गए हैं.
सरकार ने विकास की गति बढाई, महंगाई कम हुई, भ्रष्टाचार कम हुआ, क्राइम  पर पूरा कण्ट्रोल है,
महिलाओं की सुरक्षा सरकार की पहली प्राथमिकता है. दूसरी ओर टंगे होर्डिंग पर एक लड़की गोरे होने की नयी क्रीम का विज्ञापन करती हुई मुस्कुरा रही है.  किसी दूसरे होर्डिंग पर सप्ताहंत में मिलने वाली छूट का विज्ञापन है.

वो दौड़ते दौड़ते मॉल पहुँच गया है. वो बेतहाशा हांफ रहा है. लग रहा है जैसे अभी ही उसका दम निकल जायेगा. वो वहीँ गेट की कुर्सी पर बैठ जाता है. तभी जिस ठेकेदार ने उसे काम पर लगवाया था वो गेट
पर आ जाता है. वो हांफते हाँफते कहता है
- मुझे मेरी तनख्वाह दिलवा दो. मैं अपने गाँव वापस जाना चाहता हूँ.
-किस बात की तनख्वाह, काम तो तुमसे ठीक से होता नहीं और आ गए तुम यहाँ पैसे माँगने
-मैं हाथ जोड़ता हूँ मुझे मेरे पैसे दिलवा दो
-जाता है यहाँ से या बुलाऊँ अभी पुलिस को, मॉल का नाम मिट्टीमें मिलवा दिया और यहाँ आ गया
पैसे माँगने. तुझे पता है तेरी वजह से मुझे क्या क्या सुनना पड़ा मालिकों से

वो हाथ जोड़ कर घिंघियाने की मुद्रा अपने पैसे देने की गुहार लगाता है. ठेकेदार के साथ के 2-4 लड़के आ जाते हैं और उसे धक्के देकर मॉल के गेट से बाहर फैंक  देते हैं.

वो सड़क पर गिरा पड़ा है.

मॉल की जगमगाती रौशनियों में विज्ञापन की तस्वीरें चमक रही हैं. वीकेंड सेल धमाका "60% डिस्काउंट पर एक्स्ट्रा 20% डिस्काउंट"


I’m blogging for #YouMakeMeWIN to honour a blogger who has influenced me and deserves to be nominated at WIN15

2 comments:

Rohit Singh 23 August 2015 at 22:06  

भाई आपके पहले प्यार की तीन किस्त तो पढ़ ली..बाकी किस शीर्षक से है......प़ढ़ने का जाने क्यों दिल कर रहा है...य़ा कहूं कि गुजरे वक्त के मीठी कसक भरे घाव को सहलाने का मन कर रहा है...शीर्षक बताना....

रश्मि प्रभा... 10 October 2017 at 17:54  

http://bulletinofblog.blogspot.in/2017/10/blog-post_35.html

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