लड़की और शहर

>> 11 August 2015

गहरा काला नीम अँधेरा सड़कों पर उतरने लगा था. लैम्पपोस्ट की रौशनी सड़कों को धुंधलाती हुई रौशन कर रही थी. अभी घंटे दो घंटे पहले पडी बूँदा बांदी से सड़कों पर चहबच्चे जगह जगह उभर आये थे. कहीं कहीं राह में कुत्ते भौंकते दिख जाते. रात की शिफ्ट का जीवन अपनी सुबह देखने लगा था और गाड़ियाँ शोर मचाती हुईं रह रहकर सड़क से गुजर जाती थीं.

सड़क के एक हिस्से से जो गली निकलती थी और दूर जाती हुई ख़त्म हो जाती थी . वो उसी पर चलती हुई मुड़ी और अपने किराये के घर में घुस गयी. उसकी शिफ्ट ख़त्म हुई थी और अब उसे एक नए दिन के लिए तैयार रहना था. जब वो सुबह जल्दी उठेगी, अपने सभी काम ख़त्म कर, अपना नाश्ता बना खाकर, अपनी जरुरत का सामान अपने साथ ले अपनी शिफ्ट पर चली जायेगी.

वो जिस शिफ्ट में काम करती थी उसमें उसकी ही तरह की तमाम लड़कियां जिनके नाम आप कुछ भी रख सकते हैं या पुकार सकते हैं, उसके साथ काम करती थीं. असल में उनका नाम इतना महत्वपूर्ण नहीं था. नाम तो कोई भी रखा जा सकता है और पुकारा जा सकता है. किन्तु जिस कंपनी में वे काम करती थीं वह महत्वपूर्ण थी. कुछ संख्या लड़कों की भी थी लेकिन लड़कियों की अपेक्षा में यह संख्या बहुत कम थी.

यह एक कॉल सेंटर कंपनी थी. उसका काम किसी विदेशी कंपनी के देशी ग्राहकों को उसके प्रोडक्ट से सम्बंधित सूचना मुहैया कराना था. या कोई तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के लिए यदि कोई ग्राहक कॉल करे तो जवाब देना होता था.

लड़कियों की संख्या ज्यादा होने के कई कारणों में से एक कारण यह था कि कॉल करने वाले ग्राहक ज्यादातर पुरुष हुआ करते थे. और वे लड़कियों से बात करना पसंद करते हैं. कभी कभी ऐसा होता कि कोई ग्राहक यदि ऊब रहा है तो अपना समय व्यतीत करने के लिए वहां कॉल कर देता और बेसिरपैर के अनगिनत सवाल पूँछा करता और समय को खींचने की कोशिश में रहता. या कोई ग्राहक अपनी खिसियाहट निकालने के लिए कॉल कर देता और भली बुरी सुनाता. कभी कभी कई पुरुष एक साथ मिलकर कॉल करते और भद्दी भद्दी बातें करने की कोशिशें किया करते. और जब थक जाते या अपने अंदर के पशु को थोडा बहुत चारा मिल जाने पर वे जैसे तैसे कॉल रख देते.

यह घटनाएं किसी भी लड़की के लिए अब नयी नहीं रह गयी थीं. वे अब अभ्यस्त हो चुकी थीं. वे जानती थीं कि उन्हें इसी लिए रखा गया है कि इस सभ्य समाज की सभ्यता बची रहे.
और महीने के अंत में उन्हें इसकी एवज में तनख्वाह मिलती थी. जिससे उनकी अपनी सभ्यता और उनके होने और बने रहने का सुनिश्चित होना तय हो पाता था.

उसे याद है जब वह अपने छोटे शहर से इस शहर में आयी थी तब उसकी माँ ने उसे रोकना चाहा था कि वह इतने बड़े शहर में कैसे रहेगी. और कॉल सेंटर के बारे में उन्होंने थोड़ी बहुत जो बातें सुन रखी थीं कि लड़कियां फिर लड़कियां नहीं रहतीं. वे धीरे धीरे सालों में तब्दील होती चली जाती हैं. शुरू के दिनों में वे उत्साह के साथ काम करती है और फिर उनका उत्साह धीरे धीरे मरने लगता है. बोरियत उन्हें आकर घेर लेती है. आवाज़ में झूठापन और बनावटीपन आ जाता है. आँखों के नीचे काले घेरों को छिपाने के लिए कंपनी से मिले पैसे खर्च होने लगते हैं. यह एकदम नहीं होता. बहुत बारीकी से , बहुत धीरे धीरे होता चला जाता है.

वह फिर भी चली आई थी. दो और छोटी बहनें थीं और उनकी पढाई भी अभी बची हुई थी. उसे माँ का हाथ बाँटना था. वो कब तलक उस छोटे शहर में बनी रहती वहां ज्यादा से ज्यादा 2 हज़ार 3 हज़ार पर पढ़ाना होता था या इसी तरह का कोई और काम. यह बहुत कम था और उसे आगे बढ़ना था.

शोभित उसे यहीं मिला था. इसी कंपनी में. शुरू शुरू में अजनबीपन के बादल छाये रहे थे लेकिन वह भी कब तक रहते. धीरे धीरे वह छटते चले गए. और वे एक ही आकाश के नीचे एक साथ आ खड़े हुए.

लेकिन यह कहानी इतनी आसान दिखती है उतनी है नहीं. इसमें तमाम गुत्थियां हैं. जो आपस में उलझी हुई हैं. और फिर लड़की की उम्र जब बढ़ती है तो एकदम से बढ़ती ही चली जाती है. और ये उलझन फिर सुलझती नहीं बल्कि और अधिक उलझती चली जाती है.

~आगे की कहानी बाद में~

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