मन का पोस्टमार्टम-1

>> 13 July 2015

हम सब एक दिन चले जाने के लिए ही आये हैं लेकिन क्या हम वो कुछ कभी कर पाए जो करने के लिए हमारा दिल आ आकर गवाहियाँ देता है. मन काउंसलर बना हमें बार बार समझाता है कि तुम ये नहीं, ये करने के लिए बड़े भले लगते हो.
कितनी दफा सुनते हैं हम अपने काउंसलर मन की आवाजों को. क्या अन्य तमाम तरह की आवाजों की तरह ये आवाजें भी गम हो जाने के लिए लगायी जाती हैं.
असल में हम हर रोज़ ही अपने आप से कितना दूर होते चले जाते हैं. अपनी पीतल पर सोने का झूठा रंग चढ़ाये जाते हैं और भूल जाते हैं कि ये कच्चे रंग एक दिन उतर जाने हैं.
जब हमारा मन पहली बारिश में नाचने का करता है तो क्या हम नाच पाते हैं. क्या हम दिल में अटकी किसी बात को होठों तक ला पाते हैं. क्या हम खुले रास्तों पर गाने का दिल होने पर गा पाते हैं.
फिर वे कौन से क्षण होंगे जब हम जी सकेंगे जिसे हम दुनियादारी में भुला आये हैं. क्या पानी का वो सोता हम दुनिया के सामने खोल सकेंगे.

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